By सलीम अख्तर सिद्दीकी
toc news internet channel
आजकल जब बड़े-बड़े मीडिया घराने संकट से जूझ रहे हैं, तो वह हिंदी न्यू मीडिया कब तक जिंदा रह सकता है, जिसके पास आय के साधन न के बराबर हैं। ‘विस्फोट’ ही क्यों, इस जैसे कई पोर्टल अंतिम सांसें गिन रहे लगते हैं। ‘मोहल्ला लाइव’ 3 अगस्त के बाद अपडेट नहीं किया गया। क्या यह इस ओर इशारा है कि ‘मोहल्ला’ भी अब गुजरे जमाने की बात होने वाला है।
वैचारिक बहस के लिए जाने, जाने वाला यह पोर्टल दम तोड़ देगा, तो बहुत नुकसान होगा। ‘मोहल्ला’ भी अक्सर पोर्टल चालू रखने के लिए चंदा देने की अपील करता रहता है। हो सकता है कि ‘मोहल्ला’ के अविनाश कहीं और व्यस्त रहने की वजह से उसे अपडेट नहीं कर पा रहे हों, लेकिन पाठकों में तो यही संदेश जा रहा है कि वह अब बंद होने के कगार पर आ गया लगता है। कई पोर्टल दम तोड़ चुके हैं, जिनमें ‘जनतंत्र’ प्रमुख है।
बहरहाल, बात ‘विस्फोट’ की हो रही थी। दरअसल, ‘विस्फोट’, ‘भड़ास’ और ‘हस्तक्षेप’ जैसे समाचार-विचार वाले पोर्टलों से सबसे ज्यादा फायदा प्रिंट मीडिया ने ही उठाया है। देश के कई अखबार हैं, जो इन पोर्टलों से नामचीन लेखकों के लेख उठाकर संपादकीय पृष्ठों पर प्रकाशित कर रहे हैं। लखनऊ के कई अखबार ‘विस्फोट’ से उठाकर मेरे लेख प्रकाशित करते हैं। लखनऊ के ‘डीएनए’ ने एक सितंबर को ही अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी से हुई मेरी बातचीत को प्रकाशित किया है, जो पहले ‘दैनिक जनवाणी’ में छपी और फिर ‘विस्फोट’ पर उसका प्रकाशन हुआ। हिंदी के ही नहीं, अन्य भाषाओं, खासकर उर्दू अखबार भी ऐसा ही कर रहे हैं। हो सकता है कि अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के अखबार भी ऐसा ही कुछ कर रहे हों। न्यूज पोर्टलों से लेख उठाकर छापने से अखबारों का पैसा बचता है।
ऐसे में जब ‘विस्फोट’ धन के अभाव में बंद हो गया है, तो उन अखबारों की जिम्मेदारी बनती है कि वे लेख उठाने की एवज में ‘विस्फोट’ को पैसा दें। भले ही इतना न दें, जितना वे लेखक को देना चाहते हैं। कोई भी अखबार कम से कम 500 रुपये एक लेख के देता है। यदि अखबार विस्फोट या उस जैसे किसी और पोर्टल से लेख उठाते हैं, तो कम से कम 250 रुपये प्रति लेख ही अदा कर देंगे, तो हिंदी न्यू मीडिया के सामने ऐसा संकट नहीं आएगा, जैसा ‘विस्फोट’ के सामने आया है। इन अखबारों से सवाल है कि यदि विस्फोट सरीखे पोर्टल नहीं होते, तो तब आप क्या करते? संजय तिवारी जीवट वाले आदमी हैं। छल-कपट से दूर इस आदमी ने बहुत बहादुरी के साथ ‘विस्फोट’ चलाया। रास्ते में कई दानवीर भी मिले होंगे, लेकिन कोई कब तक किसी के साथ चल सकता है, वह भी तब, जब राह पथरीली हो। कल रात संजय तिवारी का फोन आया था, उनसे पता चला कि रात नौ बजे से ‘विस्फोट’ दोबारा चालू हो गया है। दिल का सुकून मिला है। लेकिन ऐसा शुकून भला कब तक रहेगा?
अगर विस्फोट जैसी साइटों के भरोसे अपना पत्रकारीय कारोबार करनेवाले अखबार या मैगजीन इसी तरह उदासीन बने रहे तो ऐसे वैकल्पिक प्रयोग भला कब तक जिन्दा रह पायेंगे? और जिन प्रयोगों के कारण उन्हें संजीवनी मिल रही है, वे ही मर मिटे तो खुद उनके साथ क्या होगा, इस बारे में भी उन्हें विचार करना चाहिए।
Posted by 10.10
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